Tuesday, August 18, 2020

आपकी सोच- वरदान या बोझ ???


                       इस समाज में कुछ भी जो नया किया जाता है, उसके लिए सहमति की ज़रूरत होती है। जैसे कोई नहीं डिश बनाई तो कैसी बनी उसपर घरवालों की सहमति, कपड़े खरीदते वक़्त ये अच्छा या वो अच्छा उसपर दोस्तों की सहमति। धीरे -धीरे ये आपकी आदत में बदल जाता है, इसके चलते हम उन चीजों की भी आदत डाल लेते है जिनके हम कभी ख़िलाफ़ हुआ करते थे। 

               
                        अगर पूरे दिन की बात करू तो हमारे सामने रोज़ टीवी पर मोबाईल पर कुछ ना कुछ ऐसा परोसा जा रहा है, जिसे हम अनदेखा कर रहे है पर वो साथ ही साथ हमारे दिमाग़ में एक सोच उत्पन्न कर रहा है। वो सोच जो काले गोरे में फ़र्क करती है, वो सोच जो लड़कियों को एक वस्तु की भांति दर्शाती है। ये एड नहीं आपकी सोच पर प्रहार है, जो रोज़ रोज़ आपके दिमाग में घर कर रहा है। रेप की ख़बरें पहले से तीन गुना हो गई है पर आपकी चिंता उसके लिए उतनी ही कम कम, मानों अब आप उसे रोज़ सुनते है तो जैसे आपने उसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा मान लिया है।  

                    किसी भी गलत चीज़ का लगातार होना उसे किसी भी तरह से स्वीकार करने योग्य नहीं बनाता, हां उस गलत ही आदत ज़रूर पड़ जाती है। लोगों में खुद की कोई विचारधारा रही ही नहीं, आज का आदमी पूरे दिन टीवी और सोशल मीडिया का कचड़ा दिमाग में भर के ज्ञान दे सकता है। ये बिल्कुल वैसा ही है कि आपके पास कोई ऐसा मैसेज आया जो की किसी धर्म समुदाय या व्यक्ति विशेष की निंदा पर है, आपने उसे आगे 10 लोगों को भेज अपनी सहमति से उस खेल में अपनी भागेदारी देदी। 

                        आइए इसे अब सरल भाषा में समझते है, रोज़ आप टीवी पर काले से गोरा होने के एड देखते रहते है और वही कोई सैनिटरी पेड का एड आ  जाए तो आप रिमोट ढूंढ रहे होते हो। मतलब एक जगह तो आप खुद के प्राकृतिक रंग को बदलने में लगे और और दूसरी ओर उन्हीं की प्राकृतिक समस्या पर शर्म का भाव क्यों??? ये दोगलापन आजकल आम हो चला है। 

                       धर्म जो की एक बहुत सवेदंशील मामला है उस पर आजकल क्या क्या कहते बोलते है लोग ये किसी से छुपा नहीं है, अगर आप उन बोलने वालों में नहीं है तो अच्छी बात है पर आप उसे सुनकर भी उतने ही भागीदार बन रहे है। आपको पता है दुनिया में सबसे अधिक त्यौहार हमारे देश में मनाए जाते है, हालात उतने ख़राब नहीं जीतने आपको मीडिया के माध्यम से दिखाए जाते है। बात सीधी ये भी है कि अगर आप किसी के लिए बुरा कह रहे है तो बुरा सुनने के लिए भी तैयार रहे, पर होता क्या है आप तक किसी एक पक्ष की बाते इस तरीके से रखी जाती है कि दूसरा पक्ष अपने आप गलत साबित हो जाता है। 

                              डिबेट शो के नाम पर बकवास करना आजकल चलन में है, वहीं हर दूसरी वेब सीरीज में नाम पर नाजायज रिश्ते, अश्लीलता को दिखाया जा रहा है। बनाने वाले को दोष क्या दे?? जब देखने वाले ही हम है, ये सब तब तक चलता रहेगा जब तक हम इसे अपनाना बंद नहीं करेंगे। आप चाहे तो इसे  बढ़ा भी सकते है और बिगाड़ भी, बस इसी मुहिम में आपका साथ चाहता हूं। इसे तरक्की कहे या दुर्भाग्य आज का युवा सनी लियोनी को तो जानते है पर, शायद हिमा दास के लिए आप में से कईयों को गूगल करना पड़े। 

                               अगर कोई भी आपको ये सीखा रहा है कि अपने धर्म, जाति  और समुदाय को अच्छा दिखाने के लिए, दूसरे की बुराई जरूरी है तो आप गलत जगह है। प्रकृति से सीखो सूरज - चांद सबके लिए एक है,एक हवा पानी.....एक ही अनाज..... किसी का नुकसान करके आपकी तरक्की कभी मुमकिन नहीं, ये याद रखना। मसला ये है के गरीब आदमी अपनी रोज़ी रोटी में ही इतना मशगूल रहता है कि उसे इस सबसे कोई लेना देना नहीं, ये जो पढ़ा लिखा अधिक सभ्य वर्ग है उनकी ये समस्या अधिक है।  
               
                                फर्ज़ कीजिए आपके घर में सांप का बच्चा मिला अपने उसे ये सोच के नहीं भगाया कि   बच्चा है क्या करेगा, एक दिन वही इतना बड़ा हो गया कि उसने आपको काटा और आप उसके ज़हर से मर गए। इसी उदाहरण को यदि हम अपने आप से जोड़े  तो जिन 
छोटी छोटी बातों को अभी नजरअंदाज कर रहे है कल वहीं हमारे लिए नुक़सान दायक होंगी, जितनी जल्दी इस खेल को समझोगे उतना सबके लिए अच्छा है।

                           अंत में यही कहूंगा ये मीडिया आपके लिए जरूरी नहीं आप उसके लिए जरूरी हो, इन्टरनेट एक ऐसी दुकान जैसा है जिसमें आपको अच्छा और बुरा दोनों सामान मिलेगा अब वो आप पर है कि आप उससे लेना क्या चाहते है?? जब आप अपनी पसंद ना पसंद को लेकर सजग रह सकते है, तो मीडिया के प्रति आपकी सहमति भी इसी तरह होनी चाइए आपको पता होना चाहिए कि जिस चीज़ को बढ़ावा दे रहे है वो असल में क्या असर डालेगी ?? 

 :- 🖋️ मनीष पुंडीर 

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